मन आकुलता से भरा हुआ जब सीता का आभास हुआ, सुध बुध खोए रघुनंदन व अद्भुत ऊर्जा का प्रसार हुआ । अब ना रहने दूँगा वन में, सीता तुम होगी पटरानी, भय नहीं मुझे उस समाज का अब जिसने की थी मनमानी । अनुचित वह था तिरस्कृत क्षण, जब था यह कृत्य हुआ, राज-धर्म के पालन में राजा पति-धर्म था भूल गया । सबका आग्रह आवेदन सुन, सीता आयी संग जाने को, छोड़ के वन और कुटिया, श्रीराम की पटरानी कहलाने को । चलती हूँ संग हे रामचंद्र, बस एक शंका का समधान करें, कैसे मानूँ जो घटित हुआ वैसे ही पुनः मुझे ना आप छलें । शादी के वचनो से ऊपर राजधर्म को माना था, जब मेरा कोई मोल ना था, फिर रावण को भी क्यूँ मारा था । लंका में उम्मीद तो थी राम मेरे अब आयेंगे, सीता के आहत मान को वे सम्मान ज़रूर दिलाएँगे। राम ने था वनवास दिया, उस दिन सीता का हुआ पतन, आहत था उस पत्नी का मन, जिसके टूटे थे सात वचन । इस वन में इतना कष्ट ना था, जितनी वेदना हृदय में थी, विश्वास प्रेम की डोर सभी एक पल में झल से तोड़ी थी । अतुल्य प्रेम करती हूँ मैं वह तो नहीं होगा कम, पर इस आहत मन के संग साथ नहीं रह सकते हम ...
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