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Showing posts from April, 2023

सोचती द्रुपद राजकुमारी - 5 - संकल्प

खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |  कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||  तभी माता कुंती को देख आते अपने ओर, आवेश से भरा मन, द्रौपदी ने मुँह लिया फेर |  "ऐसी विषम परिस्थितियों की आप हैं कारण, लेकिन भोगना है उसके दुष्परिणाम मुझे ही अकारण ||" "मुझे क्षमा करो पांचाली, दोषी मैं ही हूँ तुम्हारी, लेकिन ध्यान से सुनो अब जो मैं कहती हूँ कुमारी |  बहुत कटु वचन सुने हैं मैंने, इन पुत्रों को पाने में, पालन पोषण करके बुने हैं, ये पांच मोती माले में ||  जब तक हैं ये जुड़े, तभी तक कौरवों से बलवान हैं, जिस दिन एक मोती भी टूटा, मेरे पति पांडु का वह अपमान है |  तुम हो एकाकी सुंदरी, विश्व में ना कोई ऐसी होगी, जो तुम मिली अर्जुन को, मेरे माले में एक गाँठ पड़ जायेगी ||  कहाँ पुरुष इतना है समर्थ, उद्देश्य समर्पित हो पाए |  शिथिल है उसका आत्मबल, गर स्त्री उसकी शक्ति ना बन पाए || " खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |  कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||  "नहीं माता, क्या कहती हैं !  जीवन को क्यों दुःख से भरती हैं ? नर्क से दुष्कर होगा प्रतिदि

सोचती द्रुपद राजकुमारी - 4 - विकल्प

खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |  कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||  क्या करूँ कहाँ जाऊँ, किससे इस निरर्थक जीवन का अर्थ बूझूँ'? इस व्यभिचारिता में क्या अर्थ है, उसमें कैसे पवित्रता ढुँढू ? कर लिया जो मैंने पाँचो पांडवो से विवाह अगर, सामर्थ्य का पतन ना होगा यूँ नियति से हार कर ? ये कैसा संवाद है द्रौपदी,  एक कन्या के नहीं हो सकते पाँच पति |  ये कैसा विचार आया मेरे मन में, अनाचार की इच्छा कैसे उत्पन्न हुई जीवन में ? करूँ जो अपने सुख का विचार, तो विवाह हो अर्जुन से और बस जाए मेरा संसार |  कुरुराष्ट्र में फिर ना होगा शायद धर्म का प्रसार, और होगा कुशाषन का अंधकार ||  परंतु उसमें दोष भी क्या है मेरा |  भाग्य ने तो माता कुंती के साथ ये खेल है खेला ||  एक अयोग्य राजा बाँध देता है प्रगति को, कुंठित कर देता है प्रजा की मति को |  ऐसा राष्ट्र चला जाता है कई वर्ष पीछे, जब तक कोई अगुआ आकर उसे आगे ना खींचे ||  कैसे अपने स्वार्थ के लिए, एक राष्ट्र को महानता के अवसर से वंचित कर दूँ ! एक क्या, कई पीढ़ीयों को उनके भविष्य के लिए अतिशय चिंतित  दूँ ! नहीं नहीं! ये तो जीवन का ध्

सोचती द्रुपद राजकुमारी - 3 - अन्तर्द्वन्द

खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |  कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||  पांचाली के धैर्य ने टूटते टूटते विनती की है, "हे धर्मराज, क्या उपाय है इस स्थिति का जो धर्मोपरी भी है ?" "तुम चिंतित  ना हो पतीत पावनी, तुम्हारी वेदना का अंत होगा, हम चारों भाई सन्यास धारण करें, अतएव तुम्हे दाम्पत्य जीवन का सुख होगा |" "नहीं ज्येष्ठ! ये क्या पर्याय है? इसमें मुझ अनुज अर्जुन का जीवन ही असह्य होगा || " खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |  कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||  "अपने भाग्य पर हँसू या प्रलाप करूँ आर्य ! मेरा विवाह बन गया है  एक दुर्गम अनमना सा कार्य |  सबको करना है अपने कर्त्तव्य का वहन, उसमें कहीं पीसता सा जाता है मेरा कोमल मन ||" "मेरी अव्यक्त इच्छा थी, अर्जुन की वामांगी बनूँ, और ये दुर्गति के दिन हैं, जब वह स्वयं कहते हैं कि मैं उन्हें ना चुनूँ | एक पल को फाल्गुनी, मेरे लिए कहते कि ये कैसा अन्याय है,  तो मुझे लगता मेरे दुःख का भी अभिप्राय है || " "हे अग्नि, भस्म कर दो ये धरा, जहा किसी

सोचती द्रुपद राजकुमारी - 2 - धर्म का ज्ञान

खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |  कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||  किंकर्तव्यविमूढ़ सुन रही वार्तालाप; माता विलाप करती, "विवाह को दान कौन कहता है पुत्र !?!" "कन्या का श्रेष्ठ दान ही तो है ये माता ! माता -पिता की भाग्य-लक्ष्मी को अपना सौभाग्य बनाने, माँगा ही तो जाता है ||" "एक बार मुड़ कर देख तो लेतीं माता!" धर्म राज की वाणी ने परिस्थिति को भाँपा | 'एक कन्या को पाँच भाईयों में बाँटा तो नहीं जा सकता !' ये खुशी का क्षण, धर्मसंकट कैसे बन गया, किसी को कुछ समझ नहीं आता ||  खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |  कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||  "वाद विवाद आदेश अनादेश, इस पर चर्चा से कोई उपाय नहीं निकलता, मैं अपना आदेश निषिद्ध करती हूँ, भूल जाते हैं जो कुछ पल पहले है घटा | बस हम थे जिन्होंने सुना, समझा व परखा जो घटित हुआ, मिटा देते हैं वे क्षण अपने मानस पटल से, जब मेरे मुख से वो आदेश अनायास ही निकल गया || " "माता, आदेश देने से  पहले जैसे जानना औ बुझना होता है, वैसे ही धर्म दूसरों को दिखाने क