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Showing posts from May, 2025

सैलाब

समंदर की लहरों में खड़ी मैं, या मुझमें ही समंदर है | जो बह रहा है वो पानी है, या मेरे दिल का ये मंजर है || यूं उमड़ती है कहीं गहराइयों से, वो देखो उफनती लहर सैलाब सी बन के | फ़िर सोचु, संभालु और रोकू इसे, टकरा कर साहिल से लौट आना है इसे || कुछ सही, कुछ ग़लत की गुफ़्तगू में, "छोड़ो क्या फ़र्क पड़ता है" से "फ़र्क तो पड़ता है" की कश्मकश में | अल्हड़पन की नादानियाँ छोड़, ज़िम्मेदारियों के बोझ के तले, क्यों सही ही रहूँ कभी गलत भी तो करूँ, अपने सैलाब को दबाये, बिना शिकन क्यों हँसती रहूँ || क्यों मुश्किल है यूं खुद को इन लहरों में खो देना, जो हो पसंद बस मन का कर जाना | कभी बस गलत भी हो जाना, और सही होने की ज़िद से छूट जाना || कितना थका देती हैं ये लहरें, जब लौट आती हैं ज़ेहन में उथल-पुथल कर | कितना समेटु इन्हे? कही बह ना जाए आंखो से सैलाब बन कर || या बस खड़ी रहूँ साहिल पर, इंतज़ार में कुछ हो जाने के | सैलाब हो ये बर्बादी का, या हो आज़ादी का आगाज़ || डूबाये ये सैलाब मेरे ...