समंदर की लहरों में खड़ी मैं, या मुझमें ही समंदर है |
जो बह रहा है वो पानी है, या मेरे दिल का ये मंजर है ||
यूं उमड़ती है कहीं गहराइयों से, वो देखो उफनती लहर सैलाब सी बन के |
फ़िर सोचु, संभालु और रोकू इसे, टकरा कर साहिल से लौट आना है इसे ||
कुछ सही, कुछ ग़लत की गुफ़्तगू में,
"छोड़ो क्या फ़र्क पड़ता है" से "फ़र्क तो पड़ता है" की कश्मकश में |
अल्हड़पन की नादानियाँ छोड़, ज़िम्मेदारियों के बोझ के तले,
क्यों सही ही रहूँ कभी गलत भी तो करूँ,
अपने सैलाब को दबाये, बिना शिकन क्यों हँसती रहूँ ||
क्यों मुश्किल है यूं खुद को इन लहरों में खो देना,
जो हो पसंद बस मन का कर जाना |
कभी बस गलत भी हो जाना, और सही होने की ज़िद से छूट जाना ||
कितना थका देती हैं ये लहरें, जब लौट आती हैं ज़ेहन में उथल-पुथल कर |
कितना समेटु इन्हे? कही बह ना जाए आंखो से सैलाब बन कर ||
या बस खड़ी रहूँ साहिल पर, इंतज़ार में कुछ हो जाने के |
सैलाब हो ये बर्बादी का, या हो आज़ादी का आगाज़ ||
डूबाये ये सैलाब मेरे ज़ेहन को, या कर दे आबाद मेरी बुनियाद |
जो बह रहा है वो पानी है, या मेरे दिल के मंज़र का है राज़ ||
wow
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