खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी | कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी || तभी माता कुंती को देख आते अपने ओर, आवेश से भरा मन, द्रौपदी ने मुँह लिया फेर | "ऐसी विषम परिस्थितियों की आप हैं कारण, लेकिन भोगना है उसके दुष्परिणाम मुझे ही अकारण ||" "मुझे क्षमा करो पांचाली, दोषी मैं ही हूँ तुम्हारी, लेकिन ध्यान से सुनो अब जो मैं कहती हूँ कुमारी | बहुत कटु वचन सुने हैं मैंने, इन पुत्रों को पाने में, पालन पोषण करके बुने हैं, ये पांच मोती माले में || जब तक हैं ये जुड़े, तभी तक कौरवों से बलवान हैं, जिस दिन एक मोती भी टूटा, मेरे पति पांडु का वह अपमान है | तुम हो एकाकी सुंदरी, विश्व में ना कोई ऐसी होगी, जो तुम मिली अर्जुन को, मेरे माले में एक गाँठ पड़ जायेगी || कहाँ पुरुष इतना है समर्थ, उद्देश्य समर्पित हो पाए | शिथिल है उसका आत्मबल, गर स्त्री उसकी शक्ति ना बन पाए || " खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी | कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी || "नहीं माता, क्या कहती हैं ! जीवन को क्यों दुःख से भरती...
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