खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
पांचाली के धैर्य ने टूटते टूटते विनती की है,
"हे धर्मराज, क्या उपाय है इस स्थिति का जो धर्मोपरी भी है ?"
"तुम चिंतित ना हो पतीत पावनी, तुम्हारी वेदना का अंत होगा,
हम चारों भाई सन्यास धारण करें, अतएव तुम्हे दाम्पत्य जीवन का सुख होगा |"
"नहीं ज्येष्ठ! ये क्या पर्याय है? इसमें मुझ अनुज अर्जुन का जीवन ही असह्य होगा || "
खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
"अपने भाग्य पर हँसू या प्रलाप करूँ आर्य !
मेरा विवाह बन गया है एक दुर्गम अनमना सा कार्य |
सबको करना है अपने कर्त्तव्य का वहन,
उसमें कहीं पीसता सा जाता है मेरा कोमल मन ||"
"मेरी अव्यक्त इच्छा थी, अर्जुन की वामांगी बनूँ,
और ये दुर्गति के दिन हैं, जब वह स्वयं कहते हैं कि मैं उन्हें ना चुनूँ |
एक पल को फाल्गुनी, मेरे लिए कहते कि ये कैसा अन्याय है,
तो मुझे लगता मेरे दुःख का भी अभिप्राय है || "
"हे अग्नि, भस्म कर दो ये धरा, जहा किसी का दोष किसी और की विपत्ति है
इस आहत हृदय के जलने का दुःख तो मुझे अकल्पित है ||"
खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
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