खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
किंकर्तव्यविमूढ़ सुन रही वार्तालाप; माता विलाप करती,
"विवाह को दान कौन कहता है पुत्र !?!"
"कन्या का श्रेष्ठ दान ही तो है ये माता !
माता -पिता की भाग्य-लक्ष्मी को अपना सौभाग्य बनाने, माँगा ही तो जाता है ||"
"एक बार मुड़ कर देख तो लेतीं माता!"
धर्म राज की वाणी ने परिस्थिति को भाँपा |
'एक कन्या को पाँच भाईयों में बाँटा तो नहीं जा सकता !'
ये खुशी का क्षण, धर्मसंकट कैसे बन गया,
किसी को कुछ समझ नहीं आता ||
खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
"वाद विवाद आदेश अनादेश, इस पर चर्चा से कोई उपाय नहीं निकलता,
मैं अपना आदेश निषिद्ध करती हूँ, भूल जाते हैं जो कुछ पल पहले है घटा |
बस हम थे जिन्होंने सुना, समझा व परखा जो घटित हुआ,
मिटा देते हैं वे क्षण अपने मानस पटल से, जब मेरे मुख से वो आदेश अनायास ही निकल गया || "
"माता, आदेश देने से पहले जैसे जानना औ बुझना होता है,
वैसे ही धर्म दूसरों को दिखाने के लिए नहीं, स्वयं निभाने से होता है |
वो धर्म क्या जो स्थिति - परिश्थिति में बदल जाए,
क्या अखंडता है उन संस्कारों की, जो जब कोई ना देखे तो फिसल जाएँ ||"
"क्या मूल्य है उस सत्य का जो अवसर के साथ बदल जाए |
जब कोई देखे तो अपनायें, ना देखें तो भूल जायें ||"
खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
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