खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
क्या करूँ कहाँ जाऊँ, किससे इस निरर्थक जीवन का अर्थ बूझूँ'?
इस व्यभिचारिता में क्या अर्थ है, उसमें कैसे पवित्रता ढुँढू ?
कर लिया जो मैंने पाँचो पांडवो से विवाह अगर,
सामर्थ्य का पतन ना होगा यूँ नियति से हार कर ?
ये कैसा संवाद है द्रौपदी,
एक कन्या के नहीं हो सकते पाँच पति |
ये कैसा विचार आया मेरे मन में,
अनाचार की इच्छा कैसे उत्पन्न हुई जीवन में ?
करूँ जो अपने सुख का विचार,
तो विवाह हो अर्जुन से और बस जाए मेरा संसार |
कुरुराष्ट्र में फिर ना होगा शायद धर्म का प्रसार,
और होगा कुशाषन का अंधकार ||
परंतु उसमें दोष भी क्या है मेरा |
भाग्य ने तो माता कुंती के साथ ये खेल है खेला ||
एक अयोग्य राजा बाँध देता है प्रगति को,
कुंठित कर देता है प्रजा की मति को |
ऐसा राष्ट्र चला जाता है कई वर्ष पीछे,
जब तक कोई अगुआ आकर उसे आगे ना खींचे ||
कैसे अपने स्वार्थ के लिए,
एक राष्ट्र को महानता के अवसर से वंचित कर दूँ !
एक क्या, कई पीढ़ीयों को उनके भविष्य के लिए अतिशय चिंतित दूँ !
नहीं नहीं! ये तो जीवन का ध्येय नहीं,
ऐसे जीवन में कोई श्रेय नहीं |
माता का सुझाव लगता है सटीक,
भूल जाते हैं जो क्षण गया बीत ||
लेकिन क्या पुरुष के लिए संभव है अपनी इच्छाओं के ऊपर उठ पाना !
जिस पर सुन लिया अपना अधिकार, उसको इतनी सरलता से भूल जाना !!
आज तो अपनी सुंदरता पर भी है द्वेष |
ना होता ये कौमार्य का सौंदर्य, और ना होता कोई क्लेष ||
चली जाती हूँ पिता के घर, कर देती हूँ निषिद्ध ये स्वयंवर |
जानती हूँ आहत होगा मेरे पिता का हृदय,
लेकिन उससे अधिक कठिन है ये अपमान जनक दांपत्य |
विफल करके द्रुपद का संकल्प, जीवन अब क्या सरल होगा,
वहाँ रहूँ या यहाँ, अब यातना का ही भाग्य होगा ||
खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
Comments
Post a Comment