खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
तभी माता कुंती को देख आते अपने ओर,
आवेश से भरा मन, द्रौपदी ने मुँह लिया फेर |
"ऐसी विषम परिस्थितियों की आप हैं कारण,
लेकिन भोगना है उसके दुष्परिणाम मुझे ही अकारण ||"
"मुझे क्षमा करो पांचाली, दोषी मैं ही हूँ तुम्हारी,
लेकिन ध्यान से सुनो अब जो मैं कहती हूँ कुमारी |
बहुत कटु वचन सुने हैं मैंने, इन पुत्रों को पाने में,
पालन पोषण करके बुने हैं, ये पांच मोती माले में ||
जब तक हैं ये जुड़े, तभी तक कौरवों से बलवान हैं,
जिस दिन एक मोती भी टूटा, मेरे पति पांडु का वह अपमान है |
तुम हो एकाकी सुंदरी, विश्व में ना कोई ऐसी होगी,
जो तुम मिली अर्जुन को, मेरे माले में एक गाँठ पड़ जायेगी ||
कहाँ पुरुष इतना है समर्थ, उद्देश्य समर्पित हो पाए |
शिथिल है उसका आत्मबल, गर स्त्री उसकी शक्ति ना बन पाए || "
खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
"नहीं माता, क्या कहती हैं ! जीवन को क्यों दुःख से भरती हैं ?
नर्क से दुष्कर होगा प्रतिदिन, मृत्यु से भी दुःखदायी होगा हर क्षण || "
"जीवन यातना सरल है, जब उददेश्य स्वयं से बढ़ कर है |
निर्णय का आशय न्यायोचित है, जब वह कर्म नियम पर आश्रित है ||
सहवास एक पति संग हो, इसमें ही पत्नी-व्रत बसता है | ,
पाँच वर्ष में एक वर्ष ही एक पांडव को पति-सुख मिलता है || "
"लेकिन माता, यह शंका है ! एक पुरुष के लिए ये क्या संभव है?
सब आकर्षित हैं जब तक है यौवन !
जो सबकी है, उसका है कौन ?
अधिकार मेरा संरक्षित हो,
इसका दायित्व भी लेगा कौन ?
इस नियम-बद्ध शादी में, क्या होगा प्यार और सम्मान ?
जहाँ मेरा हो मान, और मैं बनूँ पांडवों का अभिमान !!"
खड़ी उस झुग्गी के बाहर, सोचती द्रुपद राजकुमारी |
कुछ क्षण पहले तक, नियति लगती थी सखी हमारी ||
Comments
Post a Comment