समंदर की लहरों में खड़ी मैं, या मुझमें ही समंदर है | जो बह रहा है वो पानी है, या मेरे दिल का ये मंजर है || यूं उमड़ती है कहीं गहराइयों से, वो देखो उफनती लहर सैलाब सी बन के | फ़िर सोचु, संभालु और रोकू इसे, टकरा कर साहिल से लौट आना है इसे || कुछ सही, कुछ ग़लत की गुफ़्तगू में, "छोड़ो क्या फ़र्क पड़ता है" से "फ़र्क तो पड़ता है" की कश्मकश में | अल्हड़पन की नादानियाँ छोड़, ज़िम्मेदारियों के बोझ के तले, क्यों सही ही रहूँ कभी गलत भी तो करूँ, अपने सैलाब को दबाये, बिना शिकन क्यों हँसती रहूँ || क्यों मुश्किल है यूं खुद को इन लहरों में खो देना, जो हो पसंद बस मन का कर जाना | कभी बस गलत भी हो जाना, और सही होने की ज़िद से छूट जाना || कितना थका देती हैं ये लहरें, जब लौट आती हैं ज़ेहन में उथल-पुथल कर | कितना समेटु इन्हे? कही बह ना जाए आंखो से सैलाब बन कर || या बस खड़ी रहूँ साहिल पर, इंतज़ार में कुछ हो जाने के | सैलाब हो ये बर्बादी का, या हो आज़ादी का आगाज़ || डूबाये ये सैलाब मेरे ...
अचानक आंख खुली| बाहर देखा तो, अभी अंधेरा था ; कुछ समझ नहीं पाई रात थी, या भोर का सवेरा था | बड़ी जोरो से कुछ कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें थी ; उफ़्फ़ ये शोर, क्या इन कुत्तों को दिन और रात की तहज़ीब नहीं थी? कुछ दस मिनट चला ये तंटा, और फिर से वही समय का था सन्नाटा | मैं फिर सो गई अपने बिस्तर में; ढूंढते, अररर चादर कहां गई इस ठंड में || सुबह उठ पता चला, किसी ने एक कुत्ते पर गाड़ी चढ़ा दी | वो रो रहा था और बाकियो ने भी गुहार लगा दी || अब रास्ता हो या फुटपाथ, ये भला कोई सोने की जगह है? फ़िर गलती से कुचले जाने में गलती भी किसकी है? इंसानों को एम्बुलेंस लेने के लिए कुछ मिनटों या घंटों में तो आ ही जाती है | बाकी तड़प के मर जाते हैं, फिर एक दो दिन में नगर निगम की गाड़ी लाश उठा ले जाती है || हाँ अदालत में इंसानों के लिए मुक़द्दमा भी होता है | पर बाकी का तो बस शोर ही होता है || एक साहब ने कहा मेरे रास्ते में कुत्ते नज़र ना आएं बस; मैंने सोचा वर्क फ्रॉम होम का गहरा है असर सच | काश! मैं भी ये कह पाती, मेरे रास्ते में ट्रैफिक ना आये; ना पाला पड़े ऐसे इंसानों से जो अंदर से हो ...